मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की कुर्सी खतरे में

राजनीतिक संवाददाता द्वारा
राँची :झारखंड में राजनीतिक संकट खड़ा हो गया है और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की कुर्सी खतरे में पड़ गई है। एक पुराने मामले को लेकर यह संकट खड़ा हुआ है जिससे उनके विधायकी गंवाने और मुख्यमंत्री पद से हटने की नौबत आन पड़ी है। दरअसल, उन पर आरोप यह है कि राज्य का खनन मंत्री रहते हुए उन्होंने खुद अपने और अपने कुछ करीबियों के नाम पर खान आवंटित करा लिया।
विपक्षी गठबंधन शासित एक और राज्य राजनीतिक अनिश्चितता की चपेट में आ गया है। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की कुर्सी खतरे में पड़ गई है। हालांकि इस बार उनकी सरकार के बहुमत पर कोई सवाल नहीं है, न ही विधायकों की खरीदफरोख्त का कोई आरोप है। इस बार एक पुराना मामला उनके रास्ते का कांटा बन गया है जिसमें उनके विधायकी गंवाने और मुख्यमंत्री पद से हटने की नौबत आन पड़ी है। उन पर आरोप यह है कि राज्य का खनन मंत्री रहते हुए उन्होंने खुद अपने और अपने कुछ करीबियों के नाम पर खान आवंटित करा लिया। बीजेपी ने इस मामले में उनके खिलाफ शिकायत की थी। यह पहली नजर में जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 9ए के उल्लंघन का मामला था। इसके मुताबिक अगर किसी व्यक्ति को सरकार की ओर से किसी तरह का ठेका दिया जाता है तो वह सदस्य चुने जाने के योग्य नहीं रह जाता। इसी तरह अगर किसी निर्वाचित सदस्य को सरकार की ओर से किसी वस्तु की आपूर्ति का या सरकार द्वारा करवाए जा रहे किसी भी कार्य का ठेका मिलता है तो वह सदस्य होने की पात्रता खो देता है। हालांकि मुख्यमंत्री सोरेन का कहना था कि उनका मामला तकनीकी तौर पर इस नियम के दायरे में नहीं आता। लेकिन दोनों पक्षों की पूरी बात सुन लेने के बाद चुनाव आयोग ने अपनी रिपोर्ट राज्यपाल को सौंप दी है। चूंकि आयोग की सलाह इस मामले में बाध्यकारी होती है इसलिए अब मामला जब-तब का ही माना जा रहा है।
हालांकि सत्तारूढ़ गठबंधन के पास अभी भी पूर्ण बहुमत है इसलिए तत्काल सरकार गिरने का खतरा नहीं है। लेकिन मुख्यमंत्री बदलने की सूरत तो आ ही सकती है। यह देखना होगा कि हेमंत सोरेन का अगला कदम उस सूरत में क्या होता है। लेकिन इस्तीफा देकर दोबारा चुनाव लड़ने का विकल्प अपनाने पर भी थोड़े समय के लिए ही सही, अपनी जगह किसी न किसी को मुख्यमंत्री पद उन्हें सौंपना होगा। झारखंड मुक्ति मोर्चा और सत्तारूढ़ गठबंधन के अंदर उसके साइडइफेक्ट किस हद तक जाते हैं इस पर सबकी नजरें टिकी होंगी। लेकिन सोरेन परिवार, झारखंड मुक्ति मोर्चा या सत्तारूढ़ गठबंधन अपनी सत्ता भले बचा ले, उसकी साख पर ऐसा सवाल खड़ा हुआ है जिसका जवाब केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग के रटे-रटाए फॉर्म्युले पर देना काफी नहीं होगा। इसे भारतीय राजनीति के मौजूदा दौर की विडंबना ही कहेंगे कि प्राय: सभी पक्ष अपने ऊपर लगे किसी भी बड़े आरोप का जवाब विरोधियों के दोष गिनाकर देने की कोशिश करते हैं। मानो विरोधियों का ज्यादा बुरा होना उनके बुरा होने का औचित्य साबित कर देता हो। बहरहाल, सोरेन ने विरोधियों को चुनौती देने की मुद्रा में अपने जनसमर्थन का हवाला दिया है। मगर लोकतंत्र में जनसमर्थन कानून के शासन का विकल्प नहीं होता। उम्मीद की जाए कि कानून के शासन की मजबूरियों से निकला नया नेतृत्व राज्य को बेहतर माहौल देगा।
झारखण्ड में चर्चा है किआखिर चिंटू, पिंटू ,पांडे ,तिवारी, भट्टाचार्य, मिश्रा, श्रीवास्तव लोग आखीर आखिर हेमंत सोरेन को लेकर बैठ गया ।

 

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